एक दोस्त हलवाई की दुकान पर मिल गया…।
मुझसे कहा-
‘आज माँ का श्राद्ध है,
माँ को लड्डू बहुत पसन्द है,
इसलिए लड्डू लेने आया हूँ ‘
मैं आश्चर्य में पड़ गया ।
अभी पाँच मिनिट पहले तो मैं उसकी माँ से सब्जी मंडी में मिला था ।
मैं कुछ और कहता…
उससे पहले ही खुद उसकी माँ हाथ में झोला लिए वहाँ आ पहुँची ।
मैंने दोस्त की पीठ पर मारते हुए कहा- ‘भले आदमी ये क्या मजाक है..? माँजी तो यह रही तेरे पास !
दोस्त अपनी माँ के दोनों कंधों पर हाथ रखकर हँसकर बोला,
’भई, बात यूँ है कि मृत्यु के बाद गाय-कौवे की थाली में लड्डू रखने से अच्छा है कि
माँ की थाली में लड्डू परोसकर उसे जीते-जी तृप्त करूँ ।
मैं मानता हूँ कि जीते जी
माता-पिता को हर हाल में खुश रखना ही सच्चा श्राद्ध है ।
आगे उसने कहा,
‘माँ को मिठाई,
सफेद जामुन,
आम आदि पसंद है ।
मैं वह सब उन्हें खिलाता हूँ ।
श्रद्धालु मंदिर में जाकर अगरबत्ती जलाते हैं ।
मैं मंदिर नहीं जाता हूँ पर –
माँ के सोने के कमरे में कछुआ छाप अगरबत्ती लगा देता हूँ ।
सुबह जब माँ गीता पढ़ने बैठती है तो-
माँ का चश्मा साफ कर के देता हूँ ।
मुझे लगता है कि ईश्वर के फोटो व मूर्ति आदि साफ करने से ज्यादा पुण्य माँ का चश्मा साफ करके मिलता है ।
यह बात श्रद्धालुओं को चुभ सकती है पर –
बात खरी है ।
हम बुजुर्गों के मरने के बाद उनका श्राद्ध करते हैं ।
पंडितों को खीर-पुरी खिलाते हैं..।
रस्मों के चलते हम यह सब कर लेते है पर –
याद रखिए कि गाय-कौए को खिलाया ऊपर पहुँचता है या नहीं,
यह किसे पता ।
अमेरिका या जापान में भी अभी तक स्वर्ग के लिए कोई टिफिन सेवा शुरू नही हुई है ।
माता-पिता को जीते-जी ही सारे सुख देना वास्तविक श्राद्ध है ॥
मन को छुये तो आगे भेज देना , वर्ना कचरे में पटक देना !
आपकी मर्जी ……
મોકલનાર વ્યક્તિ
Archit Jadawala